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स्वार्थ, धर्मार्थ और परमार्थ

Arya Sanskriti Kendra
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यह गलत है की प्रत्येक कार्य के पीछे कोई न कोई स्वार्थ छिपा होता है | अगर ऐसा होता तो धर्म, धर्मार्थ और परमार्थ शब्द भी नहीं होते | देशभक्ति और इश्वर पूजा स्वार्थहीन होते है | वह दान ही नहीं होता जिसके पीछे कोई निहित लाभ उठाने की मंशा हो | माता निर्माता भवति | स्वार्थी हो कर कोई भी माता, पिता और आचार्य नहीं कहला सकते | जो कर्त्तव्य कर्म करता है वह धर्मात्मा कहलाता है और जो महान कर्म करता है वह महात्मा कहलाता है | परमात्मा आत्माओं का भी आत्मा है और हमारी आत्माओं को अच्छे मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है | स्वार्थी व्यक्ति ना तो अपना भला कर सकता है ना समाज, देश, जाती, धर्म का | राजा भ्रत्हारी के अनुसार स्वार्थी व्यक्ति भूमि पर भार है और मनुष्य के रूप में छूपा जानवर है | पुत्र – पुत्री क्या, हर व्यक्ति को अपनी रुचियों के अनुसार जीने का पूरा अधिकार है और यह हर नागरिक का मौलिक अधिकार भी है | सभी को अपनी योग्यतानुसार और अपनी इच्छानुसार जीवन को संवारने के बराबर अवसर प्रदान किया जाना चाहियें | यह सही है कि .अपने हितों को त्याग कर निष्पक्ष व्यवहार ही बुजुर्गों का बड़प्पन है, कर्तव्य है और शोभा है और उन्हें परिवार में ही नहीं पुरे समाज में सम्मानित बनाता है | जानवर सब अपने लिए करता है और मनुष्य दूसरों के लिए करता है| जो माता – पिता अपनी संतानों और समाज का भला नहीं चाहते वह संस्कारित नहीं होते अतः वह राग द्वेष में डूबे होते हैं | स्वामी दयानंद लिखते हैं की जो माता-पिता अपने बच्चों को नहीं पढाते ऐसी माता शत्रु और पिता वैरी होता है |
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